स्वदेशी चिट्ठी
मैं जब आज सवेरे शाखा के बाद सैर कर रहा था तो दो बच्चियों को देखा जो गरम-गरम पूरी और सब्जी लिए हंसते हुए आपस में बातें करती मेरे आगे आगे चल रही थी। क्योंकि वह अपने स्वदेशी कार्यालय पर प्रति सोमवार को लगने वाले लंगर से पूरी सब्जी लेकर जा रही थी। एक कह रही थी “अरे! आज तो मैं भाई से सात पूरियां ले ही आई, अपने लिए भी और मम्मी के लिए भी। वो 5 से ज्यादा देता ही नहीं था।
दूसरी कहने लगी “मैं भी आज काफी सब्जी हलवा ले आई हूं और मेरा तो दोपहर का भी टिफिन इसी में हो जाएगा। उनके मुस्कुराते, आपस में बात करते देखकर इतना सुकून मिला कि मैं वापस आया और स्वयं थोड़ी देर तक आलू पूरी बांटता रहा। लोगों के चेहरे देखता। कैसे ऑटो वाले आते थे, भाग कर लाइन में लगते थे और आनंद से गरम-गरम पूरी हलवा और सब्जी लेते थे। थोड़ा अधिक डलवाने की जिद करते थे। आहा कितना आनंद ! अपने यहां के एक सेवक गुप्ता जी ने इसकी व्यवस्था की है।
और अब हम अगले सप्ताह मुकेश गुप्ता जी जो स्वदेशी मेलों का कार्य देखते हैं , उनकी तरफ से सीता रसोई (₹10 में भोजन थाली) वहां शुरू करने वाले हैं। दूसरों को भोजन करवाने का आनंद यह किसी भी आनंद से कहीं आगे होता है। आज फिर मैंने उसी आनंद को अनुभव किया तो सोचा स्वदेशी चिट्ठी के पाठकों को भी अपनी यह प्रसन्नता व्यक्त करूं।~सतीश